अरुण यह मधुमय देश हमारा (सरल व्याख्या)– जयशंकर प्रसाद
अरुण यह
मधुमय देश हमारा – जयशंकर प्रसाद
यह कविता
जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ‘चंद्रगुप्त (1931) की विदेशी पात्र सिल्युकस की
बेटी कार्नेलिया द्वारा गाया गया है।
जयशंकर प्रसाद का समस्त साहित्य
भारतीय संस्कृति और सभ्यता के गौरवगान की गाथा बनकर प्रस्तुत हुआ है। विदेशी सत्ता
की हुकूमत से दबे, आतंकित और पीड़ित भारतीय जनता को उसके सुनहरे अतीत की याद दिलाने
के लिए हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय और सांस्कृतिक धारा का साहित्य रचा जा रहा था।
उनमें जयशंकर प्रसाद के नाटकों का बड़ा योगदान है। उन्होंने पराधीन भारतीय जनमानस
में यह आत्मविश्वास भरने का कार्य किया कि वे जिस देश में रह रहे हैं, वह देश पूरी
धरती पर अपनी सुंदरता और प्राकृतिक वैभव के लिए जाना जाता है। शिक्षा, संस्कृति,
योग, नीति और ज्ञान की विभिन्न परंपराएं यहीं पर जन्मी हैं।
भारत के इसी वैभव की संपन्नता को महसूस करके सिल्युकस की पुत्री कार्नेलियी ‘चंद्रगुप्त’ नाटक में भारत का गुणगान करती है।
अरुण यह
मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
अर्थात् सूर्य के स्वर्णिम और सुनहरे प्रकाश से युक्त हमारा भारत देश मधुरता से परिपूर्ण है। मधुरता से आशय है हमारे देश में बंधुत्व, प्रेम और भाईचारे से युक्त समाज निवास करता है, जिनमें आपस में प्रेम और भाईचारा अद्भुत है। इसी बंधुत्व भरे और सम्मानजनक परिवेश के प्रति आकर्षित होकर अनेक विदेशी हमारे देश को अपना घर बनाना चाहते हैं। प्राकृतिक सुंदरता इतनी आकर्षक है कि विदेशी पक्षीयों की विभिन्न प्रजातियाँ इसके सौंदर्य की ओर आकर्षित होकर उड़े चले आते हैं। ‘अनजान क्षितिज’ से कवि का आशय यही है। इससे दूसरा आशय यह है कि जिस आकाश का कोई ओर छोर नहीं है, वह आकाश इसके मैदानी भागों के अंतिम छोरों से मिलता हुआ प्रतीत होता है। ऐसा लगता है आसमाँ इसकी धरती पर अपना सिर टिकाकर सहारा माँग रहा हो।
सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा
मनोहर।
छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।
सूर्य की किरणें ऊंचे-ऊंचे वृक्षों की फुनगियों पर टकराकर ऐसी प्रतीत होती हैं
कि मानों वृक्षों की हरियाली पर किसी ने लाल रंग का कुंकुम छिटक दिया हो। सूर्य की
किरणों से टकराकर वृक्षों की फुनगियाँ खुशी से झूम उठती हैं।
लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर
सहारे।
उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज
प्यारा।।
छोटे-छोटे रंग-विरंगे पक्षी अपने पंख फैलाए हमारे देश की सुगंधित हवाओं को
महसूस करके इसकी ओर उड़े आ रहे हैं, उन्हें यह सुगंधित वातावरण देखकर लगता है कि
यही उनका अपना घर है। तात्पर्य यह है कि भारत देश की विशालता और इसकी प्राकृतिक
सुंदरता, इसकी संस्कृति किसी भी व्यक्ति को यहाँ रहने के लिए आकर्षित करती है। वे
इसे अपना घर समझ बैठते हैं।
बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा
जल।
लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।
जैसे बरसात के बादल प्यास और गर्मी से व्याकुल धरती का दुःख देकर बरस पड़ते
हैं, वैसे ही इस देश के लोग हृदय से सभी मनुष्यों और जीवों के लिए हृदय में करुणा
और द्या का भाव धारण करते हैं। जिससे सभी का दुःख उन्हें अपना दुःख लगता है। भारत
देश की विशालता देखकर ऐसा लगता है कि अशांत महासागर भी इसके विशाल तटों पर पहुँचकर
शांत हो जाता है। अरब सागर तट, हिन्द महासागर तट और बंगाल की खाड़ी के तटों पर
समुद्र की लहरें जब पहुँचती हैं, तो मानों उसे अपनी यात्रा का विश्राम स्थल समझती
हैं। आशय यह है कि हमारा देश निराश्रितों को आश्रय प्रदान करता है। उन्हें अपनाता
है।
हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख
मेरे।
मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।
यहाँ कि सुबह इतनी मनोहर
होती है कि ऐसा लगता है मानो कोई प्रातःकाल की उषा सुंदरी अपने घड़े से बर्फ की
बूँदों की झड़ी लगा रही हो। यह काम उषा सुंदरी तब करती है जब पूरा संसार सो रहा
होता है, आकाश में तारे अलसाये रहते हैं, तब वह इस सुख से संसार को भर देती है।
प्रसाद जी की यह कविता भारतीयों को अपनी धरती, उसके लोगों के
चरित्र, सभ्यता-संस्कृति, प्राकृतिक संपन्नता और विशाल हृदयता को प्रदर्शित करती
है। भारत और भारतवासियों के मानवतावादी और प्रेमपूर्ण दृष्टि को प्रदर्शित करने
वाली यह कविता पूरे संसार को अपना बना लेने की क्षमता से पूर्ण है। प्रसाद जी की
तत्सम प्रधान शब्दावली ने इस कविता के भावों को और अधिक विस्तार दिया है।
आशीष कुमार तिवारी
9696994252

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