‘पत्नी’ (कहानी) : जैनेन्द्र कुमार समीक्षा और सारांश

‘पत्नी’ (कहानी) : जैनेन्द्र कुमार  

समीक्षा और सारांश

कहानी के पात्र – पति-पत्नी (कालिंदीचरण और सुनंदा)

         इस कहानी में जैनेन्द्र जी ने भारतीय समाज की पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के भीतर आदर्श स्त्री और पत्नी बने रहने के बोझ तले दबी स्त्री पात्र सुनंदा की जीवन व्यथा का चित्रण किया गया है। वह अपनी पीड़ा को किसी से कह नहीं पाती। केवल अपने मानसिक जगत में अपनी जीवन स्थितियों के बारे में उचित-अनुचित निर्णय करती रहती है।

         जैनेन्द्र जी मनोवैज्ञानिक श्रेणी के रचनाकार हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में पात्रों के मनोभावों को आधार बनाकर परिस्थितियों को समझने का रास्ता तैयार किया है।

         सुनंदा ऐसी ही पात्र है, जो अपने क्रांतिकारी पति कालिंदीचरण को देवता की तरह पूजती है। कहानी की शुरुआत रसोई में बैठी सुनंदा के चिंताजनक और उदासीन परिवेश से होती है। वह अकेली रसोई में बैठी अपने पति के आने का इंतज़ार करती हुई भूखी बैठी है। भारतीय समाज में यह प्रथा है कि पत्नियाँ अपने पति के भोजन के बाद ही खुद खायेंगी। ऐसा न करने वाली स्त्रियों को कुसंस्कारी स्त्री माना जाता रहा है।  

         सुनंदा को अपने पति के भूख प्यास की बहुत चिंता रहती है। वह खुद से कहती है, “वह जाने कब तक आएंगे। एक बज गया है। कुछ हो, आदमी को अपनी देह की चिंता तो करनी चाहिए।” दरअसल कालिंदीचरण देश की स्वतंत्रता के लिए उत्साहित क्रांतिकारी नौजवान हैं। उनके अन्य साथी भी देश की स्वतंत्रता के लिए सही रास्तों की तलाश के लिए आतंक और उग्रता के पक्ष में सहमत दिखाई पड़ते हैं, किंतु कालिंदीचरण विवेकशील तरीकों से देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के रास्ते चुनने के पक्षधर हैं।


         सुनंदा भी यह चाहती है कि भले ही वह कम पढ़ी-लिखी है, लेकिन उसके पति उसे भी देश की स्वतंत्रता के बारे में बताएं। वह भी स्वतंत्रता की बातों को जानना और समझना चाहती है। लेकिन कालिंदीचरण उससे कोई बातें साझा नहीं करते हैं। बाहरी दुनिया से कोई संपर्क न होने के कारण सुनंदा की समझ किसी बारे में नहीं बनती और अकेलेपन की इस अवस्था के कारण उसके जीवन में उदासी भरी रहती है, “फिर भी, उत्साह की उसमें बहुत भूख है। उत्साह की यह भूख उसकी अपनी जीवनधर्मिता के कारण बनी हुई है, लेकिन कालिंदी उसकी जिज्ञासा और उसके अस्तित्व को कोई महत्त्व नहीं देते हैं। यदि उसे अवसर मिलता तो वह भी अपने जीवन की उदासी और अकेलेपन से बाहर निकलकर दुनिया को देखती और समझती। यही दशा लगभग सभी भारतीय स्त्रियों की थी।

          कहानी में कालिंदी घर लौटते हैं तो उसके तीन और मित्र भी उनके साथ घर आते हैं। सुनंदा केवल अपने पति और खुद के लिए ही खाना बनाए रहती है। और कालिंदीचरण के देरी से आने की वजह से उससे नाराज रहती है। कालिंदी अपने मित्रों के लिए भी खाना बनाने को कहते हैं। लेकिन सुनंदा ने अपने हिस्से का भी भोजन उन सभी को परोस दिया। कालिंदी भूखी रही, उसके खाने के लिए कुछ भी न बचा था। किंतु वह अपने पति के लिए एक दिन भूखी रह जाना पुण्य सौभाग्य मानती है। बस एक कसक उसके मन में उठती है कि उसके पति एक बार उससे पूछ लेते की उसने खाया या नहीं। अपनी इस उपेक्षा का भारी दुःख सुनंदा के मन में बोझ की तरह बैठा हुआ है। पति के शरीर की चिंता उसे सताती रहती है, लेकिन पति उसके खाने-पीने, तबीयत आदि के बारे में कोई रुचि नहीं रखते हैं।

          इस कहानी के माध्यम से जैनेन्द्र जी ने भारतीय समाज में पति-पत्नी के संबंधों की एक तस्वीर उपस्थित करके यह प्रश्न पैदा करते हैं कि आखिर कब तक और क्यों कोई स्त्री इतनी उपेक्षाओं और महत्वहीनता के बावजूद आदर्श स्त्री और पत्नी बनी फिरती रहे।

         इस कहानी में स्वतंत्रता आंदोलन के आदर्शों का अनुसरण करने वालों के घर बाहर के आदर्शों और घर के भीतर की संवेदनहीनता का दोहरा चरित्र भी प्रस्तुत किया है। देश की स्वतंत्रता के हिमायती घर भीतर की स्त्री को न स्वतंत्रता के आदर्शों से परिचित ही कराते हैं और न ही उनके अस्तित्व की महत्ता को ही समझते हैं। ऐसे में समाज को स्त्री के आदर्श रूप को बनाए रखना स्त्रियों पर अत्याचार और अन्याय है। और पुरुषों को स्वतंत्र और उन्मुक्त रखने का तरीका। यही इस कहानी का मूल भाव है। 


asheesh kr. tiwari 

9696994252

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